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Sunday, April 30, 2017

What would be result of retrograde planet and direct planet ?

ग्रहों के मार्गी और वक्री होने पर उस समय क्या कार्य करने चाहिए..??
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#वक्री_ग्रह—–
वक्री का सामान्य अर्थ उल्टा होता है व बक्री का अर्थ टेढ़ा..साधारण दृष्टि से देखें या कहें तो सूर्य,बुध आदि ग्रह धरती से कोसों दूर हैं.भ्रमणचक्र में अपने परिभ्रमण की प्रक्रिया में भ्रमणचक्र के अंडाकार होने से कभी ये ग्रह धरती से बहुत दूर चले जाते हैं तो कभी नजदीक आ जाते हैं.जब जब ग्रह पृथ्वी के अधिक निकट आ जाता है तो पृथ्वी की गति अधिक होने से वह ग्रह उलटी दिशा की और जाता महसूस होता है.उदाहरण के लिए मान लीजिये की आप एक तेज रफ़्तार कार में बैठे हैं,व आपके बगल में आप ही की जाने की दिशा में कोई साईकल से जा रहा है तो जैसे ही आप उस साईकल सवार से आगे निकलेंगे तो आपको वह यूँ दिखाई देगा मानो वो आपसे विपरीत दिशा में जा रहा है.

जबकि वास्तव में वह भी आपकी दिशा की और ही जा रहा होता है.आपकी गति अधिक होने से एक दूसरे को क्रोस करने के समय आगे आने के बावजूद वह आपको पीछे यानि की उल्टा जाता दिखाई देता है. और जाहिर रूप से आप इस प्रभाव को उसी गाडी सवार ,या साईकिल सवार के साथ महसूस कर पाते है जो आपके नजदीक होता है,दूर के किसी वाहन के साथ आप इस क्रिया को महसूस नहीं कर सकते. ज्योतिष की भाषा में इसे कहा जायेगा की साईकिल सवार आपसे वक्री हो रहा है.यही ग्रहों का पृथ्वी से वक्री होना कहलाता है.सीधे अर्थों में समझें की वक्री ग्रह पृथ्वी से अधिक निकट हो जाता है.

सामान्य परिस्थितियों में ग्रहों की औसत भ्रमण गति (एक राशि को पार करने में लगा समय) इस प्रकार है :-
सूर्य – ३० दिन (एक अंश प्रतिदिन)
चंद्र – २ दिन ६ घंटे
मंगल – ४५ दिन
बुध – २७ दिन
गुरु – १ वर्ष
शनि – २ १/२ वर्ष (३० मास)
राहु – १८ मास
केतु – १८ मास
सूर्य की रश्मियों के समीप आ जाने पर ग्रह अपनी स्वाभाविक गति को छोड़कर तीव्र गति से या अपेक्षाकृत धीमी गति से भ्रमण करने लगते हैं। ऐसा बुध के साथ अक्सर होता है। ग्रहों का इस प्रकार तीव्र गति से घूमने लगना उनका अतिचारी हो जाना कहलाता है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सूर्य और चंद्र सदैव मार्गी गति से भ्रमण करते हैं अर्थात सदैव आगे की ओर अर्थात् मेष, वृष, मिथुन इत्यादि क्रम से चलते हैं। राहु और केतु सदैव वक्री होते हैं अर्थात् सदैव पीछे की ओर अर्थात् मीन, कुम्भ, मकर, इस क्रम से चलते हैं। अन्य ग्रह स्थिति अनुसार कभी आगे कभी पीछे चलते हैं अर्थात् वे मार्गी या वक्री दोनों हो सकते हैं। वास्तव में पीछे चलने जैसी घटना नहीं होती परन्तु पृथ्वी से वे इस प्रकार चलते हुए प्रतीत होते हैं।

ग्रह के वक्री होने से उसके नैसर्गिक गुण में ,उसके व्यवहार में किसी प्रकार का कोई अंतर नहीं आता अपितु उसके प्रभाव में ,उसकी शक्ति में प्रबलता आ जाती है.देव गुरु ब्रह्स्पत्ति जिस कुंडली में वक्री हो जाते हैं वह जातक अधिक बोलने लगता है,लोगों को बिन मांगे सलाह देने लगता है.गुरु ज्ञान का कारक है,ज्ञान का ग्रह जब वक्री हो जाता है तो जातक अपनी आयु के अन्य जातकों से आगे भागने लगता है,हर समय उसका दिमाग नयी नयी बातों की और जाता है.

ऐसा जातक अपनी उम्र से पहले बड़ा हो जाता है,वह उन बातों ,उन विषयों को आज जानने का प्रयास करने लगता है,सामान्य रूप से जिन्हें उसे दो साल बाद जानना चाहिए.समझ लीजिये की एक टेलीविजन चलाने के किये उसे घर के सामान्य वाट के बदले सीधे हाई टेंसन से तार मिल जाती है.परिणाम क्या होगा?यही होगा की अधिक पावर मिलने से टेलीविजन फुंक जाएगा.इसी प्रकार गुरु का वक्री होना जातक को बार बार अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने को उकसाता है.जानकारी ना होने के बावजूद वह हर विषय से छेड़ छाड़ करने की कोशिश करता है.अपने ऊपर उसे आवश्यकता से अधिक विश्वास होने लगता है जिस कारण वह ओवर कोंनफीडेंट अर्थात अति आत्म विश्वास का शिकार होकर पीछे रह जाता है.आपने कई जातक ऐसे देखे होंगे की जो हर जगह अपनी बात को ऊपर रखने का प्रयास करते हैं,जिन्हें अपने ज्ञान पर औरों से अधिक भरोसा होता है,जो हर बात में सदा आगे रहने का प्रयास करते हैं,ऐसे जातक वक्री गुरु से प्रभावित होते हैं.जिस आयु में गुरु का जितना प्रभाव उन्हें चाहिए वो उससे अधिक प्रभाव मिलने के कारण स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पाते.

कई बार आपने बहुत छोटी आयु में बालक बालिकाओं को चरित्र से से भटकते हुए देखा होगा.विपरीत लिंगी की ओर उनका आकर्षण एक निश्चित आयु से पहले ही होने लगता है.कभी कारण सोचा है आपने इस बात का ?विपरीत लिंग की और आकर्षण एक सामान्य प्रक्रिया है,शरीर में होने वाले हार्मोनल परिवर्तन के बाद एक निश्चित आयु के बाद यह आकर्षण होने लगना सामान्य सी कुदरती अवस्था है.शरीर में मंगल व शुक्र रक्त,हारमोंस,सेक्स ,व आकर्षण को नियंत्रित करने वाले कहे गए हैं.इन दोनों में से किसी भी ग्रह का वक्री होना इस प्रभाव को आवश्यकता से अधिक बढ़ा देता है. यही प्रभाव जाने अनजाने उन्हें उम्र से पहले वो शारीरिक बदलाव महसूस करने को मजबूर कर देता है जो सामान्य रूप से उन्हें काफी देर बाद करना चाहिए था.
शनि महाराज हर कार्य में अपने स्वभाव के अनुसार परिणाम को देर से देने,रोक देने ,या कहें सुस्त रफ़्तार में बदल देने को मशहूर हैं.कभी आपने किसी ऐसे बच्चे को देखा है जो अपने आयु वर्ग के बच्चों से अधिक सुस्त है,जा जिस को आप हर बात में आलस करते पाते हैं.खेलने में ,शैतानियाँ करने में,धमाचौकड़ी मचाने में जिस का मन नहीं लग रहा. उसके सामान्य रिफ़लेकसन कहीं कमजोर तो नहीं हैं . जरा उस की कुंडली का अवलोकन कीजिये,कहीं उसके लग्न में शनि देव जी वक्री होकर तो विराजमान नहीं हैं.
इसी प्रकार वक्री ग्रह कुंडली में आपने भाव व अपने नैसर्गिक स्वभाव के अनुसार अलग अलग परिणाम देते हैं.अततः कुंडली की विवेचना करते समय ग्रहों की वक्रता का ध्यान देना अति आवश्यक है.अन्यथा जिस ग्रह को अनुकूल मान कर आप समस्या में नजरंदाज कर रहे हो होते हैं ,वही समस्या का वास्तविक कारण होता है,व आप उपाय दूसरे ग्रह का कर रहे होते हैं.परिणामस्वरूप समस्या का सही समाधान नहीं हो पाता..

वक्री होने से ग्रह के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आता,बस उसकी शक्ति बढ़ जाती है.अब कुंडली के किस भाव को ग्रह की कितनी शक्ति की आवश्यकता थी व वास्तव में वह कितनी तीव्रता से उस भाव को प्रभावित कर रहा है,इस से परिणामो में अंतर आ जाता है व कुंडली का रूप व दिशा ही बदल जाती है.
इसका मतलब जब कोई ग्रह गोचर में भी वक्री हो तो उसका प्रभाव भी बढ़ जायेगा .

1-शनि जब मार्गी हो तो उस समय शत्रुता और शत्रुनाश के लिए समस्त कार्यों में सफलता मिलती है।
2-शनि जब वक्री हो तो दो मित्रों में एवे दो प्रेमियों में विद्वेषण एवं उच्चाटन के लिए सफलता मिलती है।

1.गुरु जब वक्री होता है तो भूमि, जायदाद व प्रतिष्ठा में न्यूनता व कमी लाने वाला कार्य कराता है।
2-इसके विपरीत जब-जब वह मार्गी होता है तो भूमि जायदाद, औहदे में बढ़ोत्तरी तथा सामाजिक प्रतिष्ठा व अन्य कार्यों में सफलता के कार्य करने हेतु किये गए तिलस्मों (यन्त्रों) में सफलता मिलती है।

1-मंगल जब मार्गी होता है तब यश, मान, पद, प्रतिष्ठा और किसी वस्तु का आयोजन- संयोजन, संगठन के लिए किये गए कार्यों में सफलता मिलती है।
2-इसके विपरीत इसके वक्री होने पर सभा, फौज को नष्ट करने के लिए विघटन सम्बन्धित सामूहिक कार्यों के लिए बचाये गए तिलस्मों (यन्त्रों) में सफलता मिलती है।
1-इसके मार्गी होने पर स्त्री-जाति में प्रेम-सम्बन्ध, मित्रता एवं ऐश्वर्यशाली वस्तुओं के क्रय-विक्रय, संयोजनात्मक कार्य, पार्टी, विवाह सगाई इत्यादि कार्यों में सफलता मिलती है।
2-इसके विक्री होने पर गर्भपात, संताननाश हेतु बनाये गए तिलस्मों (यंत्रों) में विशेषकर सफलता मिलती है।

1-बुध मार्गी होने पर यश, मान और हर प्रकार की विद्या प्राप्त करने हेतु बनाये गए तिलस्मों (यंत्रों) में सफलता मिलती है।
2-इसके विपरीत यह वक्री होने पर किसी को जलील करना, अपमानित करना व नीचा दिखाने के लिए किये गए तिलस्मों (यंत्रों) में सफलता मिलती है।

ग्रहों के मार्गी, वक्री में ठीक समय का अनुसन्धान-
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1-तुला राशि के एक अंश पर किसी ग्रह के वक्री, मार्गी हो जाने पर उस समय केवल एक व्यक्ति के लिए शत्रुता या तकलीफ पहुंचाने व समाप्त करने के लिए किये गए कार्यों में सफलता मिलती है।

2-तुला राशि के दो अंशों पर किसी ग्रह के वक्री या मार्गी हो जाने पर ग्रहकाल में दुश्मन को काबू करने एवं उसको अनुकूल बनाने के लिए किये गए कार्यों में सफलता मिलती है।

3-तुला राशि के तीन अंशों पर वक्री-मार्गी हुए ग्रहकाल में ऐसे रहस्य का पता चल सकता है, जिसके बारे में जानना अत्यन्त कठिन है।

4-तुला राशि को आठ अंशों पर वक्री-मार्गी होने वाले ग्रहकाल में विपरीत लिंगी के प्रति किये गए प्रेम सम्बन्धी कार्यों व वशीकरण यंत्रों में तत्काल सफलता मिलती है।

5-तुला राशि के ग्यारह अंशों में वक्री-मार्गी हुए ग्रहकाल में विपरीत रास्ते पर गए हुए व्यक्ति को सही रास्ते पर लाने के लिए किये गए कार्यों में सफलता मिलती है।

6-तुला का शुक्र जब तेरह अंशों में वक्री अथवा मार्गी हो जाये तो किसी औरत को बदचलन करने के लिए, उसको पथभ्रष्ट करने के लिए किये गए प्रयासों में सफलता मिलती है।

7-तुला का शुक्र चौदह अंशों तक वक्री अथवा मार्गी हो जाये तो उस समय कोई भी औषधि, दवा अथवा लोशन जो सुन्दरता को बढ़ाने वाला हो, बनाया जाये तो उसमें आश्चर्यजनक सफलता मिलती है।
8-तुला का शुक्र जब तीस अंशों पर वक्री अथवा मार्गी हो तो उस समय किसी इमारत, भवन व बड़ा भवन को हमेशा-हमेशा के लिए कायम रखने के लिए उसकी कीर्ति को अखण्ड बनाने के लिए किये गए प्रयासों में सफलता मिलती है।

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